Pugalia Parivar

Welcome to Pugalia Parivar
committee members


इतिहास
इतिहास ऐसा है कि विक्रम सम्वत 1772 में राजवंशीय श्री ठाकूर सीसयाची चांडक राजस्थान के एक गांव जिसका नाम पुगल थाए से बीकानेर आयेए जहां उन्हें पुगलिया कहा जाने लगा । फिर उनके सभी वंशज भी पुगलिया कहे जाने लगे । चन्द्रास गोत्रीय पुगलिया जाति की उत्पतित इसी प्रकार हुर्इ । कालान्तर में वे बीकानेर से देश और दुनिया के जिस हिस्से में भी गये वहां पुगलिया नाम से ही जाने गये । चंकि यह नाम पूर्वजों की मातृभूमि से सम्बद्ध है अतरू अपने आप में कुछ विशेषताएं लिए हुए भी है । संस्कृत का एक शब्द है श्पुगाना जिसका अर्थ होता है ऋण चुकाना । यदि श्पुगल को उसी संस्कृत शब्द का अपभ्रंश मान ले तो उसका अर्थ हुआ कि जन्मभूमि के नाम की स्वयं के साथ जोड कर इसके वंशजो ने अपनी जन्मभूमि की सदैव स्मरण मे रखने का प्रयास किया । भूमि का ऋण उदात्त भावनाओ से ही अदा होता है । श्पुगल गांव भले अधिक चर्चा मे न होए परन्तु उसकी संताने सुदूर प्रदेशों में इसी नाम से जानी जाती हैं और जानी जाती रहेगी । 

चंकि यह बिरादरी मारवाड के धरती से सम्बद्ध रही हैए अतरू वहां के गौरवमयी अतीत की छाप भी इस पर पडी है । पुगलिया सल्तनत के  जमाने के मारवाड के ठाकुरो और माहेश्वरी समाज की महिलाओं के जौहर और सती प्रथा की चर्चा तीसरी दुनिया में रही है । पुगलिया समाज की भी अनेक माताए उस जमाने में सती हुर्इए जिनके नाम शिला लेख के रूपमें आज भी बीकानेर की श्पुगलिया बगेची में अंकित है । कर्इ शिला लेख स्पष्ट रूप् से नहीं पढे जा सकेए परन्तु उनमें दो को श्श्री मंगलचन्द जी पुगलिया ने जागाओ से पढवाने की चेष्टा की थी किन्तु वे अधिक नही पढे जा सके । 
1ण्संण् 1810 श्रीण् ठाकुरदासजी की पुत्रबधु तथा श्री प्रेमराज की पत्नी प्रेमाबार्इ सती हो कर बीरगति को प्राप्त हुर्इ ।
2ण्संण् 1825 फाल्गुन सुदी 1 की श्री प्रेमराज जी की पुत्रवधु तथा श्री बस्तीरामजी की पत्नी राती बार्इ अपने पति वियोग से सती होकर वीरगति को प्राप्त हुर्इ । 
सभी शिला लेखों के पढे जाने पर ऐसे नामों की एक लम्बी सूची बन सकती है । तात्पर्य यह पुगलिया समाज उन्ही वीरांगना माताओं की संतान के रूप में गौरव अनुभव कर सकती है । संक्षिप्त में इसके उत्कर्ष के पीछे उन दिव्य आत्माओं का आशिर्वाद भी अवश्य रहा है । 
 
 बगेची की स्थापना
सम्पूर्ण प्रकृति ही मनष्य की प्रेरणास्त्रोत है । यह सम्पूर्ण भूमण्डल उस सर्वशकितमान का हराभरा बगीचा हैए जिसमें प्राणिमात्र स्वच्छंद विचरण करते है । पुगलिया समाज की उत्पतित के करीब 137 साल बाद परिवार के कुछ भाइयों ने जब यह देखा कि अपने ही माहेश्वरी समाज के कर्इ अलग.अलग आकर्षक बगेची हैए  जिसमें पुरे समाज की सहभागिता हैए तथा जिसमें समय.समय पर पूरी बिरादरी के लोग एकत्रित होते हैए तसे इससे उन्हें अपने समाज के लिये भी ऐसी प्रेरणा मिली । हालांकि उस समय पूरे पुगलिया समाज के लोग अंगुलियों पर गिने जाने लायक थेए परन्तु पुवजों ने यह सोच कर ही इसकी नींव डालने का संकल्प किया होगाए कि भावी पीढी के लोग आने वाले समय में अवश्य ही उसका अभिवद्र्धन करेंगे । समाज के कुछ गिने चुने लोगोंने  गोष्टी की । विचार विमर्श के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि एक बगेची की आधारशिला रखी जाय । तत्पश्चात सम्वत 1910 सुभमिती आषाढ सुदी 5 के दिन प्रत्येक की सहभागिता से एक प्लाट खरीद कर श्पुगलिया पंचायती की स्थापना की गयी । इस कार्य में समाज के सभी लोगों ने काफी उत्साह दिखलाया । उस समय के एक मानिंद बुजुर्ग पूज्य श्री हरदासजी पुगलिया पंचायती के प्रथम पंच नियुक्त किये गये । उस समय पुगलिया समाज इतना छोटा था कि आपसी सहयोग से भी किसी बडी योजना को साकार करने की कल्पना तक नहीं जा सकती थी । एक बात अवश्य  थी  किइस छोटे समाज में भी पर्याप्त उत्साह था । सामाजिक कार्य हेतु सभी  भार्इ दान देने में एक दूसरे से दो कदम आगे थे । अतरू पंचायत के निर्णय के बाद सालाना लागमा नियुक्त किये गये । पूण्श्री हरदास जी एक प्रकार से सामाजिक कार्यों के प्रति ही तन.मन से समर्पित हो गये थे । अपने समाज और समाज से बाहर भी उनकी मान्यता थी । सम्वत 1945 से वे अत्यधिक अस्वस्थ रहने लगेए जो शैशव रूप् के पुगलिया समाज पर एक झटका था । श्री हरदास जी के दिवंगत  होने के पश्चात उन्हीं के समान एक और कर्मठ बुजूर्ग पूज्य श्री लाभचन्द जी को पंचायती के पंंच के रूप में नियुक्त किया गया ।  पूण्लाभचन्द जो भी अपने समाज के प्रति पूर्णतया समर्पित रहने वाले व्यकित थे ।  उनकी बुधिद बडी रचनात्मक थी । अपनी बुधिदमता एवं मृदुल स्वभाव से उन्होंने भार्इयों से प्रार्थना करकेए लागमा थोडा बढाया एवं चिटठाद कराया । उसके नेतृत्व मे कर्इ समाज के लिए महत्वपूर्ण ही थे । उनके प्रयास से ही सर्व प्रथम एक कमरा ;श्मशान की तरफद्ध और एक तिबारी निर्मित की गयीए जिसकी बडी आवश्यकता थी । इतना ही नही उन्होंने अपने प्रयास से कोष को भी थोडा और समृद्ध किया । पंचायत की सेवा उन्होंने लम्बी अवधि तक की । जब अस्वस्थ रहने लगे तो उन्होंने स्वयं ही पद से मुक्त होने की इच्छा व्यक्त की । अन्य भार्इयों से परामर्श कर अपनी जिम्मेदारी श्री द्वारका दासजी पुगलिया  को दे कर स्वयं निवृतित हो गये । विण्संण् 1988 मे श्री लाभचंदजी का महाप्रयाण हुआ । पुगलिया समाज उनकी निरूस्वार्थ सेवा को सदैव स्मरण में रखेगा । 
श्री द्वारका दासजी ने 5 साल तक बगीचे की देख भाल की । उनके कार्यकाल मे कोष की अच्छी वृद्धि हुर्इ । पूज्य श्री लाभचन्द  जी के निधन के बाद पूण्श्री द्वारकादासजी ने स्वेच्छा से तथा बिरादरी के लोगों के परामर्श से पुगलिया पंचायती की बागडोर श्री मंगलचन्दजी के हाथ सौप  कर इस कार्य से स्वय मुक्त हो गये । 

पूज्य श्री मंगलचन्दजी ने पंचायत की सेवा बडी निष्ठा के साथ कीए जिसे आज भी याद किया जाता है । उन्होंने प्रत्येक कमाऊ सदस्यों तथा बहुओं को बगीचे के उत्थान के लिए प्रेरित किया । वे स्वयं भी इस कार्य के लिए पूर्ण समर्पित थेए अतरू इसका प्रभाव दूसरों पर भी पडताए यह स्वाभाविक ही था । उनके परामर्श को सभी लोग सहर्ष स्वीकार कर लेते थे । बिरादरी के सभी भार्इयो ंके बीच उनकी बडी मान्यता थी । बगीचे को कांटो की बाढ से हटा कर उन्होंने इस बंगले के रूप मे परिवर्तित किया जो उनकी एक बडी उपलबिध थी । आज पुगलिया बगेची अन्य माहेश्वरी बन्धुओं के बगेचिंयों में सर्वोत्तम माना जाता है । पंच के रूप में श्री मंगलचंदजी के कार्यकाल को पुगलिया बिरादरी के इतिहास का स्वर्णिम काल माना गया है । विण् संण्2027 कार्तिक बदी 4 को उन्होंने पूण्श्री गोपीदासजी  को बुलाकर बगेची का दायित्व उन्हें सौंपा और उसी शाम अपने पंच भौतिक  शरीर का भी त्याग कर दिया । जैसे कि उन्हें अपने महाप्रयाण का भी पूर्वाभास था तथा बगेची की चिन्ता जीवन के अनितम क्षण तक उनके मन में  बनी रही । 

पूण् श्री गोपीदासजी एकान्त प्रिय और भकितभाव में लीन रहने वाले सन्त कोटि के व्यकित थेए अंतरू श्रद्धेय श्री श्री 108 परम पूज्य रामसुख दासजी की सेवा में तल्लीन हो गये और बीकानेर से बाहर रहने लगे । इसी समय से बगेची की देख.रेख कलकत्ता सिथत कार्यालय से की जाने लगी ।
बगेची का सांगोपान खयाल रखा जाये तथा अन्य सामाजिक कार्यों में भी पुगलिया बिरादरी का यथोचित योगदान हो सकेए इसी उíेश्य को कानूनी जामा पहनाते हुए सन 2010 मे श्री महेश्वरी पुगलिया पंचायत व बगेची ट्रस्टए बीकानेर की स्थापना की गयी । बीकानेर महेश्वरी समाज बहुत बडा हैए जिसमें पुगलिया बिरादरी भी उसकी एक लघु इकार्इ हैए जिस प्रकार शरीर के छोटे से छोटे अंग की भी अपनी अलग महत्वता होती हैए उसी प्रकार पुगलिया बिरादरी एक बृहत महेश्वरी समाज की छोटी इकार्इ के रूप् में गौरव का अनुभव करती हैए आज अपनी कर्मठताए लगनए निष्ठा और उत्साह एवं कठोर परिश्रम से पुगलिया परिवार का प्रत्येक सदस्य सुख.शांति से जीवन यापन कर रहा हैए तथा व्यवसाय के क्षेत्र में भी प्रगति के पथ पर है । 

ऐसा प्रति होता है कि श्पूज्य मार्इ जी की कृपा वर्षा प्रत्येक परिवार पर हो रही हैए जो सभी के लिए प्रातरू स्मरणीय है ।
 
बगेची की तपोभूमि पर पूण् मार्इजी का पदार्पण
सिद्ध स्थान वही हैए जहां व्यकित सध जाये । व्यकित तभी सधे ज बवह शरीर को साधन बनाकर उसे मंगल कार्य में लगा दे । सबसे कठिन और सबसे सरल साधाना कर्मयोग का ही हैए जो गृहस्थो के लिए सुलभ है । कभी.कभी ऐसा संयोग भी होता है कि सिद्ध सन्तों की कृपा भी उन पर हो जाती है । पुगलिया बगेची की आधारशिला रखने वाले हमारे बुजुर्ग काफी भाग्यशाली धर्मात्मा व्यक्ती थे । उन्ही के निरूस्वार्थ त्याग तथा लोकमंगल के लिए उनके द्वारा की गयी तपस्या से श्श्पुगलिया बगेची भी तपोभूमि बन गया क्योंकिए इस पर पूज्य मार्इजी का कृपा हुर्इ । विण्संण् 1977 भाद्र मास में बगेची की देख.रेख करने वाले सुगनीबार्इ ने तत्कालीन पंच पूण् श्री लाभचन्दजी  को जाकर बतलाया कि परम पूज्य 108 श्री र्इश्वर गिरीजी महाराज की शिष्या पूजनीय लालीबार्इजी बीकानेर शहर छोडकर किसी अन्य स्थान पर वास करेंगी । इस सूचना को पाते ही श्री लाभचंदजी  उसी दिन श्री र्इश्वर गिरीजी महाराज के पास पधारे तथा मार्इजी से पुगलिया बगेची में निवास करने हेतु विनम्र निवेदन किया । मार्इजी ने कृपापूर्वक इसे स्वीकार कर लियाए और बगेची के श्मशान वाले को उन्होंने अपना आश्रम बना लिया । 

पूज्य मार्इजी का जन्म विक्रमी संवत 1943 में रायपूर में हुआ थाए परन्तु उनके जीवन के सभी संस्कार बीकानेर में ही सम्पन्न हुएए तथा उनके सम्पूर्ण जीवन पर राजस्थान की संस्कृति की छाप रही । इसका एक मूल कारण यह था कि इनके पिता श्री कृष्णदासजी पुष्करणा समाज के अन्तर्गत जोशी जाति के थे । अतरू रायपूर में रहने के बावजूद श्री कृष्ण दासजी की बीकानेर की धरती से सदैव लगाव रहा । धर्मभीरू पिता के सानिध्य में पचपन से ही उन्हें र्इश्वर में अटूट आस्था हो गयी        थी । 

श्री कृष्ण दासजी की कुल तीन संताने थी । श्श्मार्इजी के अतिरिक्त रामबख्श जी व शिवबख्श जी । मार्इ जी के ज्येष्ठ भ्राता के निधन के पश्चात सारे परिवार को रायपूरसे बीकानेर आना पडा । 

श्री कृष्णदासजीए लाडली बेटी को सुशिक्षित करना चाहते थेए परंतू अपनी पत्नी को वे इस विषय पर सहमत नहीं कर सके । अन्त मे यह तया किया गया कि श्श्लाली को घर पर ही कुछ पढाया जाय इसके लिए एक शिक्षक नियुक्त किया गया । 

श्री कृष्ण दासजी अपने दोनोंंंंं पुत्रों मे से किसी के विवाह में शामिल नही हो सके थेए अतरू अपनी पुत्री के विवाह की उनकी तीव्र लालसा थी । 

डस समय की जैसी प्रथा थीए मात्र सात वर्ष की अवस्था में ही पूण् मार्इजी पिरणय सूत्र में बन्ध गयी । इनके पति श्री शिव कृष्ण जी का परिवार शिव भक्त था तथाए वे स्वयं भी शिव के अनन्य उपासक थेए अंतरू ससुराल में भी आध्यातिमक वातावरण मिला । प्रभु की ऐसी लीला हुर्इ कि मात्र 19 वर्ष की अवस्था में ही पूण् मार्इजी वैधव्य से अभिशप्त हो गयी । असमय पति की मृत्यु से सारा संसार उनके लिए वीरान हो गयाए परन्तु इस एकाकी जीवन को भी उन्होंने कुणिठत नही होने दिया । यही से इनका ध्यान योग शुरू हुआ । एकान्त कमरें में बैठकर घंटो ध्यान मग्न रहने लगीं । जेठ जोरावर मलजी का मार्इजी के प्रति बडा ही उदार व्यवहार था । वे पल प्रतिपल इनका खयाल रखते थे । ससुराल में मार्इजी ने हरद्विर आदि तीर्थों की यात्रा भी की । मन धीरे.धीरे बैराग की ओर रमने लगा । वैधव्य जैसे क्रूरतम अभिशाप से अभिशप्त होने के बावजूद पूण् मार्इजी के लिए यह संतोष का विषय था उन्हें मजबूत सम्बल के रूप् में जेठ जोरावल मलजी जैसे उदार संरक्षक को ठोस संरक्षण मिल गया थाए परन्तु दुर्भाग्य ऐसा कि विक्रमी संवत 1965 मे जोरावर मलजी भी काल कवलित हो गयेए परणिम स्वरूप् कुछ ही दिनों के पश्चात उन्हे पितृगृह का सहारा लेना पडा । पिता भी चल बसे थे अंत मां के आंचल के नीचे अपने व्यथित जीवन की व्यथा ले कर पहुंचीए जहां उन्हें मातृ वात्सल्य की शीतल छाया तो नहीं मिल सकीए मां के कठोर अनुशासन का दाह अवश्य मिला । पूण् मार्इजी मायके में भी उसी प्रकार किसी एकान्त कमरे में घण्टों ध्यान मग्न रहती जिसके कारण उन्हें बार बार मां का कोप भाजन बनना पडता । कभी किसी सत्संग मे जाती तो उलाहने सहने पडते । तब का समाज ऐसा किलष्ट था कि वह किसी भी विधवा को बडे कठोर अनुशसन मेे देखना चाहता थाए अतरू मायके में उन्हें भी इसी सिथति का सामना करना पडा । 

संयोग ऐसा रहा कि यहां उन्हे पडोस की एक महिला जो स्वयं एक साधिका थीए बुलकी बार्इए से सम्पर्क हुआ । बुलकी बार्इ एक विचारशील व शुद्ध आचरण वाली विदुषी थीए वे मार्इजी का पूरा खयाल रखने लगी । मार्इजी के आध्यातिमक जीवन में बुलकी बार्इ का बडा योगदान रहा है । बुलकी बार्इ ने एक साधिका के रूप् में स्वामी सदानन्दजी से जो कुछ सीखा था उन्होंने लाली बार्इ को अवगत कराया । 

विण् संवत 1974 मे देश मे भयानक प्लेग फैलाए जिसकी चपेट में बीकानेर भी था । लोग इस महामारी से बचने के लिए बीकानेर से पलायन करने लगे । मार्इजी के सभी कुटुम्ब और परिवार के लोग भी बीकानेर छोडकर जाने लगेए परन्तु मार्इ जी का संकल्प था  किइस प्राकृतिक आपदा के समय वे बीकानेर नही छोडेंगी । इस विषम परिसिथति में उन्होंने बडी निष्ठा के साथ बीकानेर वासियों की सेवा की । आपकी इस निरूस्वार्थ सेवा ने अनेक लोगों को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया । 

बुलकी बार्इ के सानिध्य मे मार्इजी ने योग की कर्इ कि्रयाओ का अभ्यास किया था इधर बुलकी बार्इ अवस्थ रहने लगी थी तथा मार्इजी उनकी सेवा में थी । स्वास्थ जब उत्तरोत्तर गिरता ही गया तो उन्होंने र्इश्वर गिरीराज व सदानन्द जी महाराज को नमो नारायण कहलवाया और अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अनितम दर्शन की अभिलाषा प्रकट की । 

किसी कारण वश सदानन्द जी तो नही आ सकेए पर र्इश्वर गिरीराजी पधारे । बुलकी बार्इ को स्वामीजी ने आदेश दिया  किवह सब ओर से अपनी वृतित हटा करए एक मात्र भगवान के ध्यान में अपनी समस्त इनिद्रयों को लगायें क्योंकि यह सचेष्टा का समय हैए इसलिए मन पर पूर्ण नियंत्रण रखना होगा क्योकि श्श्अन्त मति ओ गति ।। 

बुलकी बार्इ ने स्वामी जी का चरण स्पर्श कर निवेदन किया कि श्श्मुझे और कोर्इ चिन्ता नहीए केवल चिन्ता है तो एक इस लाली की और इसके लिए आपको कष्ट दिया है । श्श्लाली सब तरह से योग्य है और गुरू लोगों की कृपा से जो कुछ मुझे प्राप्त थाए वह मैने इसे प्रायरू दे दिया हैए रहा सहा और भी दे दूंगीए पर इस शरीर के नष्ट होने पर श्श्लाली के संरक्षण का भार में आपके श्री चरणों में समर्पण करना चाहती हंू । कृपया इसकी अनुमति दीजाएगी । मै तो सन्यास लेने की अपनी अभिलाषा को चिता में साथ ही ले जाऊंगीए पर मेरी इस अभिलाषा की पूर्ति स्वरूप् श्श्लाली को सन्यास देने की कृपा की जाये । 

मार्इजी उस क्षण बडी भाव विहवल थी । उन्हें जेठ को दिए गये उस वचन का भी स्मरण थाए जिसमें इन्हें सब कुछ घर में रह कर ही करना था । इधर बुलकी बार्इ ने मार्इजी को बार.बार स्मरण दिलाया  किवे जिस सिथति तक पहुंच चुकी है उसका अगला कदम सन्यास ही है । सर्व प्रथम तो सिथति ऐसी बनी कि महाराज जी ने भी इसके लिए एका एक अनुमति नही दी परन्तु अन्त में उनकी वाणी से ये शब्द निकल पडे कि श्श्तुम्हारी इच्छा के कारण में आज इसे अपनी शिष्या स्वीकार करता हंू । सन्यास के लिए जब तक मैं अपने मापदण्ड से पूर्णतया जांच कर सन्तुष्ट न हो जाऊंगाए तब तक चादर नही दंूगा । 

इस प्रकार लाली की चिन्ता से मुकित पा कर बुलकी बार्इ ने एक दो दिन के भीतर ही शरीर का त्याग किया । उन्होंने घर वालों को समझा कर इस बात की सहर्ष अनुमति ले ली थी कि उनके अन्त समय में तुलसी गंगाजल व सिराणा देने का कार्य लाली ही रहेगी । घर वालों को भी पूण्मार्इजी के प्रति बडी सदभावना थीए इसलिये उन्होंने यह स्वीकार कर लिया । 

बुलकी बार्इ ने महाप्रयाण से मार्इजी के जीवन में पुनरू एक बार शून्यता आ गयी । वे शिक्षिप्त सी रहने लगी । इधर मां यह अपेक्षा रखती थी कि श्श्लाली दिन भर गृह कार्य में लगी रहे । इधर ये पूर्ण विरक्त हो चुकी थी । वे छुपछुप कर साधना में रत रहती और मां उन्हें ढंूढ लेती । फिर वही व्यंग्य बाणए फिर वही उलाहनेए फिर उसी प्रकार वस्त्रों को चिथडे कर आक्रोश का प्रदर्शन । यमुना देवी की धनिश्ठता लक्ष्मी देवी से थी जो प्रायरू उत्संग में जाती रहती थी । मार्इजी के बुद्धि परिवर्तन के उíेष्य से वे अपने साथ इन्हें भी उत्संग में ले जाने लगीं । इस प्रकार वे नित्य र्इष्वर गिरिजी के यहां जाने लगी । गुरू जी इसी क्रम में साधना हेतु कुछ न कुछ मार्ग दर्षन भी करते । वे गुरू के सत्संग में कुछ इस प्रकार रम गयीए कि अपने भतीजे के विवाह के अवसर पर भी घरेलू कार्यों के प्रति उदासीन रहींए जिससे परिवार वाले और भी उग्र हो उठे । यहां तक कि गुरूदेव के साथ इनके गुरू षिश्या के सम्बंधों पर भी उंगलियां उठायी गयी । इससे मार्इ जी काफी खिन्न रहने लगी । एक दिन जब गुरू ने उनकी उदासी का कारण पूछा तो ये फफक कर रो पडी । 

सब कुछ सुन करए ब्रम्हलीन स्वामीजीने अपनी षिश्या तो सान्तवना देते हुए समझाया ßअपने आप को भूल जाने का नाम ही वैराग्य है।  तुमने जब अपने आप को भगवान ही को अर्पित कर दिया है तो फिर तुम्हारा कहने को षेश अब क्या रह गया घ् तुम्हारी निन्दा कोए तुम अपनी नहीं बलिक र्इष्वर की निन्दा समझाो । साधक के लिए निन्दा और स्तुति दोनों ही समान है। तुम्हें इस व्यर्थ की बातों से चिनितत नही होना चाहिए । तुम निरन्तर निर्विघ्न अपने पथ पर चलती जाओ

श्श् पर गुरूदेव! मेरा मन ऐसे वातावरण मे कैसे सिथर रह सकता है । मन की सिथरता नही तो साधना कैसी घ्

श्श् मैने तुम्हारे लिए उचित मार्ग सोच लिया है । आज से तुम इसी कोने में बैठ कर साधना करो । यहां से गयी तो बस गयी . यही मेरा आदेष          है ।

मार्इजी जैसी श्रेश्ठ षिश्या गुरू आदेष का उल्लंघन नहीं कर सकती थीए अतरू उस रात उन्होंने वही साधना की परन्तु प्रातरू घर लौटने पर प्रत्येक ने बारी बारी से इन्हें लांछित कियाए परन्तु ऐसे ही षब्द जब मां के मुख से भी निकलने लगे तोए मार्इ जी ने गृहत्याग की ही मन बना लिया । कहीं गुरू भी लांछित न हो जाये इसका विचार करते हुए जब आपने संवत 1975 में गृह त्याग किया तो कुछ दिनों तक काली मंदिर में रही । 

स्वामी श्री र्इष्वर गिरीजी महाराज जोधपुर के निवासी थे । छोटी अवस्था में ही आप पहली बार सन्यासी के रूप् में बीकानेर आयेए तथा यहां की मिटटी से आपका लगाव हो गया । इस धरती को आपने योग और साधना के अनुकूल पाया तथा इसी को अपनी तपो भेमि बनी ली । आपकी ख्याति दूर दूर तक फैली ।

स्वामीजी केवल पहुंचे हुए सन्त ही नही थेश एक सिद्धस्त वैध भी थे । बिना अमीर और गरीब के भेद भाव के रोगियों की निरूषुल्क चिकित्सा किया करते । इस प्रकार लोक कल्याण में लगे वे सर्वगुण सम्पन्न महान सन्त थे । अपनी वृद्धावस्था मे उन्होंने भाटोलार्इ तलार्इ पर सिथत मंूधडो की बगीची को अपना निवास स्थान बनाया था । पूण् मार्इ जी यही रह कर स्वामीजी जैसे सुयोग्य गुरू की छाया तले अपने आथ्यातिमक ज्ञान को निरन्तर आगे बढाने लगी । कुछ दिनों पष्चात मंूधडो की बगीची का जब नव निर्माण होने लगा तो स्थानाभाव हो गया । मार्इजी का वहां  रहना उचित नहीं समझते हुए गुरूदेव ने अपनी षिश्या से कहा श्श् बेटी! स्थान की कमी होने के कारण तुम्हारा अब यहां रहना संभव नही । तुमने बताया था कि तुम्हारी इच्छा हिमालय प्रवास की हैए पर इसके लिए मैं तुम्हे आज्ञा नहीं दे सकताए क्योंकि तुम नारी हो । बाहर की दुनिया से अनभिज्ञ । मैने अनुभव किया है कि बीकानेर की धरती योगियों के लिए अति लाभदायक है । संख्ययोग के आचार्य महर्शि कपिलदेव जी की इस तपोभूमि में साधना का सुयोग पूर्व जन्म के पुण्य से ही मिलता है । यह पवित्र तपोभूमि भारत के तीर्थ स्थानो में अपना विषिश्ट स्थान रखती है पर यह श्श् पर गंूगे का गुड की भांति जिसने भी इस तपोभूमि के विलक्षण तत्वों को आभास पा लियाए उसके लिए इससे बढं कर अन्य कोर्इ भी स्थान आकर्शक नही रहा । तुम भी कोलायत चली जाओ । वहां का वातावरण तुम्हारी साधना मे सिद्ध होगा । तुम आज तैयारी कर लो तो कल तुम्हे भेज दिया जाएगा । पर जाने से पूर्व तुम्हें आवष्यक बातें बतला देना चाहता हंूए जिन्हें ध्यान में रखना । एक ही स्थान पर रह कर साधाना करना । कोर्इ जगहए जमीन या स्टेट मत बनवाना । षहर मे कभी मत जाना । साधुओं के साथ भ्रमण मत करना । 

सुर्याग्रस्त के समय षहर के अनेक नागरिक स्वामी जी के पास सत्संग मे आया करते थे । उन्होंने जब यह सुना कि स्थानाभाव के कारण मार्इजी कोलायत जा रही हैए तो वे सभी खिन्न हो गये । सुगनी स्वामिनए जो पुगलिया बगेची में रहती थीए उस समय र्इष्वर गिरिजी की सेवा में प्रातरू सायं मंूघडो की बगेची मे आया करती थी । उसने किस प्रकार यह सूचना पूण् श्री लाभचंद जी को पहुंचार्इ तथा श्री लाभचंदजी ने किस प्रकार पूण् र्इष्वर गिरिजी से अनुमति प्राप्त कर पूण् मार्इजी को पुगलियों के बगेची में पधारने हेतु सहमत करवायाए इसकी चर्चा पूर्व के पृश्ठों में की जा चुकी        है ।

गुरूदेव का आदेष प्राप्त कर पूण् मार्इजी पुगलिया बगेची में पधारी । पुगलिया समाज ने इसे अपना सौभाग्य समझाा । बगेची के ष्मषान वाले कमरे को उन्होंने अपना आश्रम बना लिया । इस आश्रम मे उन्होंने बडा ही कठिन तप किया । एक ही आसन पर बैठ कर 33 वर्शों तक तप किसी और युग के लिए कठिन बात नहींए परन्तु कलयुग के लिए तो यह तपस्या एक बहुत बडी बात थी । इस कठिन तपस्या से जैसे कोर्इ ज्यातिपुंज उनमें समा गयी । उन्हें कर्इ दिव्य अनुभूतियां हुर्इ । उस स्थान पर श्रद्धालु भक्तों की भीड उमडने लगी । उनकी ख्याति दूर दूर तक फैलने लगी । अनेक आर्त और दुखी व्यकित उनके दर्षनार्थ आते तथा उनकी श्री दिव्यावाणी और दिव्यदर्षन से अभिभूत होकर प्रसन्नता पूर्वक वहां से लौटते । इसी समय पूण् श्री लाभचन्दजी का स्वर्गवास हुआ था तथा बगेची की बागडोर पूण् श्री मंगलचन्दजी के हाथों में आ गयी थीए पंच के रूप में जिनके कार्यकाल को पुगलिया बिरादरी के इतिहास का स्वर्णिम काल माना गया है ।  अध्यातिमक दृशिट से भी वह समय मंगलकारी रहा । जैसा कि उल्लेख किया जा चुका हैए मार्इजी की कीर्ती बीकानेर से आगे दूर दूर तक फैल गयी थीए अंतरू देष के बडे.बडे सन्तोंए साधकों और विद्वानों का भी इस बगीचे में षुभागमन हुआ । श्श् मार्इजी की ये तपोभूमिए परमपूज्य षंकराचार्यजी महाराजए श्री करपात्रीजी महाराजए श्री नरसिंह गिरिजी महाराजए श्री अच्युतबोध आश्रम जी महाराजए महान संत श्री रामसुखदासजी महाराजए उत्तर काषी के महामण्डलेष्वर श्री विश्णुदेवानन्द गिरीजी महाराज सहित अनेक सिद्ध पुरूशोंए साधकों एवं विद्वानों के पावन चरणरज से पावन हुर्इ । बीकानेर वासियों को तो नित्य ही सत्संग का लाभ मिला । जिस प्रकार बीकानेर पर करणी माता एवं अन्य कर्इ देवी देवताओं की कृपा हुर्इ हैए उसी प्रकार दिव्यात्मा पूण् मार्इजी की भी इस पर कृपा वर्शा हुर्इ । मार्इजी के प्रभाव से यह स्थान तीर्थस्थल बन गया । विण्संण् 2010 मार्गषीर्श षुक्लप्रतिपदा सोमवार के दिन गोधूलि बेला के समयए उत्तर काषी के मठाधीष पूज्यपाद श्री विश्णू देवानन्द गिरिजी की मौजूदगी में उनका महाप्रयाण हुआ । उनकी समाधि एवं शोडसी का कार्य महा मण्डलेष्वर की देख रेख में ही सम्पन्न हुआ तथा स्वामीजी ने स्वयं उसमें हिस्सा लिया । बीकानेर वासियों के लिए वह क्षण बडा ही मार्मिक था । हजारों की संख्या में लोग समाधि स्थल पर श्रद्धाजलि अर्पित करने हेतु उमड पडे थे । बीकानेर से प्रस्थान करने से पूर्व पुज्य महा मण्डलेष्वर जी ने जो उदगार व्यक्त किए उससे तो बीकानेर वासी अभिभूत हो उठे थे । उन्होंने अपने उदबोधन में कहा कि रू. 

श्श्हमारे षस्त्रों के अनुसार एक ही आसन पर 12 वर्श यदि कोर्इ तप करता है तो उसे सिद्धि प्राप्त हो जाती है । त्यागमूर्ति मार्इजी ने तो 33 वर्श तक एक ही आसन पर तप किया । उन्हें सिद्धि तो अवष्य प्राप्त हुर्इ परन्तु उन्होंने भौतिक जगत मे इसका कभी प्रदर्षन नही किया । वे तमाम सिद्धियां अब उनकी समाधि में समाविश्ट हो गयी हैए जिससे यहां का वायुमंडल सदैव ही इससे ओतप्रोत रहेगा । इस समाधि का प्रदर्षन करने वाला बडा ही भाग्यषाली होगा

पूण् महामण्डलेष्वर के उदगार दैव प्रेरित ही थे । इस समाधि के दर्षन करने वाले श्रद्धालुओं की आज भी कमी नहीं । कर्इ ऐसे श्रद्धालु हैं जो आज भी नियमित समाधि का दर्षन करते हैंए और कर्इ ऐसे जो दर्षन के पष्चात ही अन्न जल ग्रहण करते है । पुगलिया समाज के लिए तो यह स्थान तीर्थस्थल है ही । आज पुगलिया समाज यदि उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर है तो कौन कह सकता है कि इसके पीछे मार्इजी की कृपा नहीं बगेची में उन्होंने कठिन तप किया था । उस तपका साक्षात फल तो यही दृशिटगोचर होता है कि पुगलिया समाज के रूप् में उस बगेची का विस्तार बीकानेर से बहुत दूर तक हो चुका है । उनकी अनन्य कृपा से बगेचीका हर फूल अपनी सुगंध से समाज को सुवासित कर रहा है । वास्तव में यह खुषबु तो उन्हीं मार्इ की है । 

अब तो बीकानेर के उस बगेचीको श्श्पुगलिया बगेची के नाम से कम ही लोग जानते है श्श्लाली बार्इ की बगेची के नाम से सभी जानते है । कुछ भक्तों ने इस पर गीत लिखे वह भी काफी सुप्रसिद्ध हो गया है । 

श्श्धन्य पुगलियों थोरी तीर्थ बगेची

यह बगेची हमारे पूर्वजो की अमूल्य धरोहर के साथ साथ आस्था और विष्वास का प्रतीक भी बन गया है । इस पवित्र स्थान पर अषांत मन को बडी षानित मिलती हैए तथा ऊर्जा भी प्राप्त होती है । 

ब्ीकानेर की यह पुगलिया बगेची वहां के अन्य दर्षनीय स्थलों में एक हैए जहां नित्यदिन बीकानेर और बाहर से आये श्रद्धालु भक्तजन आते रहते है । वर्तमान समय में यहां नियमित पूजा पाठ और भजन कीर्तन होता रहता है । पुगलिया समाज की यह एक अमूल्य धरोहर है ।
video porno gratis